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विकास के वादों के बीच डूबती हकीकत — जान जोखिम में डालकर स्कूल जाते हैं बच्चे


Hemant Kumar pal
21-08-2025 12:01 PM
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एक बार नहीं, दिन में दो बार जान जोखिम में डालते हैं ये बच्चे
उफनती नदी पार कर पहुंचते हैं स्कूल, लेकिन विकास अब भी गायब
हेमंत पाल दुर्ग।छत्तीसगढ़ में शासन-प्रशासन के लाख दावों के बावजूद ज़मीनी हकीकत कई जगहों पर डराने वाली है। दुर्ग जिले के धमधा ब्लॉक का एक गांव — मुढ़पार — आज भी विकास से कोसों दूर है। यहाँ के मासूम बच्चे हर रोज़ दो बार अपनी जान को दांव पर लगाकर स्कूल जाते हैं।
मुढ़पार गांव में केवल कक्षा पांचवीं तक की पढ़ाई उपलब्ध है। इसके बाद की शिक्षा के लिए बच्चों को करीब 2 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम घोटवानी जाना होता है। लेकिन इन दोनों गांवों के बीच बहती है एक उफनती नदी, जो बारिश के मौसम में खतरनाक रूप ले लेती है।
बिना पुल, बिना नाव — जान हथेली पर लेकर सफर
गांव के बच्चों के पास न तो कोई पक्का रास्ता है, न नाव, न पुल और न ही सुरक्षा की कोई व्यवस्था। इसके बावजूद ये बच्चे हर सुबह और हर दोपहर — दिन में दो बार — इस नदी को पार कर स्कूल जाते हैं। बारिश के दिनों में नदी का बहाव इतना तेज़ होता है कि साइकिलें बह चुकी हैं, और कई बच्चों ने डर की वजह से स्कूल जाना बंद कर दिया है।
गांव बना टापू, ज़िंदगी थम जाती है
बरसात के मौसम में यह गांव पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कट जाता है। न कोई बाहर आ सकता है, न कोई अंदर जा सकता है। बाढ़ की वजह से कई बार पूरा गांव ‘कैद’ हो जाता है।
इस आपदा का सबसे भयावह चेहरा तब सामने आया जब बाढ़ के दौरान दो गर्भवती महिलाओं को समय पर अस्पताल नहीं पहुँचाया जा सका और उनके नवजातों की मौत हो गई
विकास आज भी कागज़ों में कैद
आज़ादी को 75 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन मुढ़पार गांव में न सड़क है, न पुल, न स्वास्थ्य सुविधा और न ही स्थायी विकास का कोई चिह्न। प्रशासन से कई बार गुहार लगाई गई, लेकिन हर बार ‘फाइल आगे बढ़ रही है’ जैसी औपचारिक बातों में ग्रामीणों को टाल दिया गया।
शिक्षा अधिकार अधिनियम भी यहां मौन
देशभर में बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने की बात की जाती है, लेकिन मुढ़पार जैसे गांवों में शिक्षा पाने के लिए जान जोखिम में डालनी पड़ रही है। सवाल यह है कि क्या यही है “सबके लिए शिक्षा” का असली चेहरा?
अब सवाल शासन-प्रशासन से है:
- क्या इन बच्चों को एक सुरक्षित स्कूल मार्ग देना सरकार की प्राथमिकता नहीं है?
- क्या हर साल बाढ़ में फंसने वाला ये गांव कभी विकास देख पाएगा?
- क्या बच्चों की ज़िंदगी की कीमत किसी बड़ी परियोजना से कम है?
गांव की मांग सिर्फ एक है एक पक्का पुल। ताकि इन बच्चों को हर दिन मौत के साए में चलकर शिक्षा तक न पहुँचना पड़े।
अब देखना ये है कि क्या शासन इस खामोश संघर्ष की आवाज़ सुनेगा, या फिर यह गांव भी सिर्फ एक और आंकड़ा बनकर रह जाएगा
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